संघीय प्रणाली को इतना ताकतवर बताया गया है
किसी भी संविधान के निर्माताओं के सामने सबसे महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक संघीय या एकात्मक संरचना के बीच चयन करना। एकात्मक ढांचे में, कानून बनाने की शक्ति एक केंद्रीय संसद में निहित होती है, लेकिन संघीय ढांचे में, क्षेत्रीय इकाइयों के पास भी कुछ विधायी शक्तियां होने के साथ उन्हें लागू करने की स्वायत्तता भी। संघीय प्रणाली लिखित संविधान से वैधता प्राप्त करती है।
1935 के भारत सरकार अधिनियम ने पहली बार एक ‘भारत संघ’ का निर्माण किया, इनमें से कुछ प्रावधानों को हमारी संविधान सभा द्वारा महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के साथ अपनाया गया। अनु. 1 में ही, भारत को ‘राज्यों के संघ’ के रूप में परिभाषित किया गया है। बी.आर. अम्बेडकर ने समझाया कि ‘संघ’ शब्द का प्रयोग यह स्पष्ट करने के लिए किया गया था कि भारतीय संघ अविनाशी है। इसका गठन क्षेत्रीय इकाइयों के बीच समझौते के परिणामस्वरूप नहीं हुआ है।
संविधान के संघीय प्रावधान क्या हैं?
हमारा संविधान केंद्र और राज्यों के बीच विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय शक्तियों को विभाजित करता है। भाग 5 और 6 में उनकी कार्यकारी शक्तियों सहित केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार की संरचना पर प्रावधान शामिल हैं। संविधान का भाग 11 बताता है कि किन विषयों पर केंद्रीय संसद और राज्य विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार है। भाग 12 और 13 महत्वपूर्ण वित्तीय और वाणिज्यिक पहलुओं पर चर्चा करते हैं, जैसे कि कराधान की शक्तियां।
भारतीय संघवाद की अनूठी विशेषताएं क्या हैं?
भारतीय संघवाद का एक एकात्मक झुकाव है और इसलिए उसे एक अर्ध-संघीय राज्य कहा जाता है। अर्ध-संघवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है केंद्रीय (100 विषय) और राज्य (61 विषय) सूचियों में विषयों की असमान संख्या। इसके अलावा संविधान ये भी कहता है कि समवर्ती विषयों पर केंद्र और राज्य के बीच मतभेद की स्थिति में केंद्र का निर्णय प्रभावी होगा। अवशिष्ट शक्तियां भी केंद्र सरकार में निहित की गई हैं। संविधान में संघवाद के सिद्धांत के अपवाद भी शामिल हैं। कुछ स्थितियों में केंद्र राज्य की शक्तियों का प्रभार ले सकता है। इनमें आपातकाल की उद्घोषणा और राज्यों में राष्ट्रपति शासन की घोषणा की शर्तें शामिल हैं।
क्या आप जानते हैं?
असममित संघवाद: भारतीय संविधान में छठी अनुसूची में जम्मू और कश्मीर, सिक्किम, नगालैंड, असम और अन्य राज्यों जैसे कुछ राज्यों के लिए विशेष प्रावधान हैं।
अनु. 368 संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है। भारत के संघीय ढांचे से संबंधित कुछ हिस्सों में संशोधन के लिए कम आधे राज्यों की विधानसभाओं की सहमति की भी आवश्यकता होती है।
जिन्हें आज ‘केंद्र शासित प्रदेश’ कहा जाता है, उन्हें 1956 से पहले ‘मुख्य आयुक्त के प्रांत’ के रूप में जाना जाता था।