यह संक्षिप्त-लेख एक श्रृंखला का हिस्सा है, जो हमारे भारतीय संविधान, 1950 के लागू होने के बाद पारित किए गए महत्वपूर्ण संवैधानिक संशोधनों के संदर्भ, सामग्री और प्रभाव पर प्रकाश डालता है।
संविधान (चौबीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 को, 5 नवंबर 1971 पारित किया गया था। इस संशोधन का उद्देश्य आई. सी. गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलटना था, जिसने संसद को किसी भी तरह से मौलिक अधिकारों को कम करने से रोक दिया था। 11 न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ ने यह निर्णय दिया था कि संसद को संवैधानिक स्वतंत्रता को समाप्त करने या कम करने की कोई शक्ति नहीं है। सरकार का मानना था कि यह फैसला उसे राज्य के नीति निदेशक तत्वों को प्रभावी ढंग से लागू करने में बाधा उत्पन्न करेगा। हालांकि कुछ नीति निदेशक तत्व सैद्धांतिक तौर पर मौलिक अधिकारों को भी सिमित करते हैं। 24वें संशोधन के तहत अनुच्छेद 13 और 368 को संशोधित किया गया, ताकि मौलिक अधिकारों में स्वतंत्र रूप से संशोधन करने के लिए संसद को अधिकृत किया जा सके।
अनुच्छेद 13 में कहा गया है कि कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों के विपरीत हो, अमान्य होगा। गोलक नाथ मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि ‘कानून’ शब्द के तहत संवैधानिक संशोधन भी शामिल हैं; नतीजतन, मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाला कोई भी संवैधानिक संशोधन अमान्य होगा। इसलिए संसद मौलिक अधिकारों को कम करने के लिए संवैधानिक संशोधनों का उपयोग नहीं कर पाएगी। 24वें संशोधन ने अनुच्छेद 13 में खंड (4) जोड़ा, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 13 किसी भी संवैधानिक संशोधन पर लागू नहीं होगा, जो गोलक नाथ के फैसले को प्रभावी ढंग से उलट देता है।
अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन की प्रक्रिया बताता है। मूल संविधान के तहत, कोई भी संवैधानिक संशोधन तभी लागू होगा जब दो शर्तें पूरी हों: पहला, यदि संसद के प्रत्येक सदन के दो-तिहाई सदस्यों ने विधेयक के पक्ष में मतदान करें; दूसरा, यदि उसे राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हो, हालांकि राष्ट्रपति के पास स्वीकृति न देने का भी विकल्प था। संशोधन ने दूसरी शर्त को बदल दिया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि राष्ट्रपति विधेयक पर अपनी सहमति देने के लिए बाध्य हैं – उनके पास कोई विकल्प नहीं है।
24वें संशोधन को 1973 में आंशिक रूप से पलट दिया गया, जब सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में कहा था कि संसद संविधान के ‘मूल ढांचे (बेसिक स्ट्रक्चर)’ में संशोधन नहीं कर सकती है। इस मामले में, 13 न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि संविधान की कुछ बुनियादी या आवश्यक विशेषताएं संसद की संशोधन शक्तियों के दायरे से बाहर हैं।
हालाँकि, ‘मूल ढांचे’ में कौन-कौन अनुच्छेद शामिल किए जाए, इसपर प्रत्येक न्यायाधीश की एक अलग राय थी। इस लिए, इस सवाल का पूरी तरह से उत्तर नहीं दिया गया कि मूल संरचना क्या है? सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण और मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ के मामलों द्वारा ‘मूल ढांचे’ (Basic Structure) के बारे में बताया है, लेकिन कोई भी मामला इस सिद्धांत के तहत आने वाले सिद्धांतों को पूरी तरह से परिभाषित या निर्धारित नहीं करता है।
अनुच्छेद 13 और 368 दोनों ही अपने संशोधित रूप में विद्यमान हैं। हालाँकि, विभिन्न मामलों में फैसलों के द्वारा, न्यायालयों ने यह सुनिश्चित किया है कि इन अनुच्छेदों से संविधान की मूल संरचना को कमजोर करने का प्रयास न किया जाए।
This piece is translated by Kundan Kumar from Constitution Connect.