एक संविधान का प्राथमिक दायित्व सत्ता की शक्तियों की सीमाएं निर्धारित करना है और यह परिभाषित करना है की सरकार किस प्रकार कार्य करती है। इस कार्य को प्रभावी तरीके से करने के लिए संविधान के पास सरकार द्वारा किए जाने वाले बदलावों के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता होनी चाहिए। इसके साथ ही भले ही किसी भी संविधान को बनाने में कितनी भी सावधानी रखी गई हो, वो किसी देश के राजनीतिक और सामाजिक हालात में होने वाले बदलावों का पूर्वानुमान नहीं लगा सकता। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संशोधन नियमों को बनाते समय सही संतुलन ढूंढने को कोशिश की।
संविधान सभा में संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत (संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई मत) को जरूरी बनाने पर गहन चर्चाएं की गई। कुछ सदस्यों को लगा कि यह नियम बहुत कठोर है और इसकी जगह पर सामान्य बहुमत को ही उचित मानना चाहिए। इसके जवाब में ंडॉक्टर अंबेडकर ने अमरीका जैसे दूसरे देशों के उदाहरण दिए जिनमें संशोधन के नियम इससे भी ज्यादा कठोर थे। भारत में नियम इतने कठोर नहीं बनाए गए लेकिन ये महसूस किया गया कि साधारण कानूनों की तुलना में संशोधन के नियम ज्यादा मजबूत होने चाहिए। इसलिए अनुच्छेद 368 के अनुसार, भारतीय संविधान के महत्वपूर्ण प्रावधानों को बदलने के लिए संसद केदोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत होना अनिवार्य है। कुछ तकनीकी बदलाव साधारण बहुमत के द्वारा भी किए जा सकते हैं। संघीय ढांचे से जुड़े हुए प्रावधानों में बदलाव करने के लिए कम आधे राज्यों की सहमति भी चाहिए।
भारतीय संविधान अनुच्छेद 13 के तहत न्यायिक समीक्षा का प्रावधान देता है। यह न्यायपालिका को किसी भी ऐसी विधायी और कार्यकारी कार्रवाई को रद्द करने का अधिकार देता है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करें। इसकी वजह से सरकार के विभिन्न अंगों के बीच विरोध उत्पन्न होने लगे। संसद ने पहला संशोधन अधिनियम बनाया जिसने मौलिक अधिकारों के अपवादों को पेश किया और कुछ कानूनों को न्यायिक समीक्षा से पूरी तरह से बचा लिया। न्यायपालिका ने 1967 में संसद की संशोधन शक्ति को सीमित करके गोलक नाथ फैसले के माध्यम से जवाब दिया, जिसे 24वें संशोधन अधिनियम के माध्यम से संसद द्वारा फिर से विस्तारित किया गया।
1973 के केशवानंद भारती मामले में एक समझौता किया गया कि संसद के पास मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन यह शक्ति पूर्ण नहीं है। इस सीमित शक्ति के तहत, संसद संविधान की ‘मूल संरचना’ को नहीं बदल सकती है। कुछ लोगों ने इस प्रावधान की न्यायिक आधिक्य के एक उदाहरण के रूप में आलोचना भी की है। न्यायपालिका ने ‘मूल संरचना’ के उल्लंघन के लिए एक उच्च स्तर निर्धारित किया है और परिणामस्वरूप विधायिका संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन करने में सक्षम नहीं रही है। इस प्रकार, इसने सरकार के विभिन्न अंगों के बीच प्रमुख संवैधानिक सिद्धांतों के बारे में एक लोकतांत्रिक संवाद को बढ़ावा देने में मदद की है।